भारत में आम आदमी को इंसाफ मिलना मुश्किल, इंडियन जस्टिस रिपोर्ट 2025 में पढ़ें भारतीय कानून व्यवस्था का हिला देने वाला सच

Published on: 01 May 2025 | Author: Sagar Bhardwaj
भारत जस्टिस रिपोर्ट (IJR) 2025 का चौथा संस्करण इस महीने जारी हुआ. यह रिपोर्ट न्याय व्यवस्था के चार मुख्य आधारों—न्यायपालिका, पुलिस, जेल और कानूनी सहायता- में गंभीर समस्याओं को उजागर करती है. यह बताती है कि भारत की न्याय व्यवस्था कमजोर, धीमी और अक्सर आम आदमी को इंसाफ देने में असमर्थ है.
न्याय व्यवस्था की खामियां
रोजाना अखबारों, न्यूज चैनलों और फिल्मों में हमें अन्याय की कहानियां सुनने को मिलती हैं. कई बार पीड़ितों को पुलिस थानों से भगा दिया जाता है. अदालतों में केस सालों तक लटके रहते हैं. गरीब और वंचित लोग लंबी आपराधिक प्रक्रियाओं में फंस जाते हैं. दुख की बात यह है कि हमने इन समस्याओं को सामान्य मान लिया है. लेकिन सच्चाई यह है कि न्याय व्यवस्था की कमियां हर दिन लाखों लोगों को प्रभावित करती हैं.
पुलिस व्यवस्था में कमियां
रिपोर्ट बताती है कि पुलिस बल का ध्यान मुख्य रूप से शहरी क्षेत्रों पर है. 2017 से 2023 के बीच ग्रामीण पुलिस थानों की संख्या में कमी आई है. भारत में प्रति एक लाख लोगों पर सिर्फ 155 पुलिसकर्मी हैं, जबकि स्वीकृत संख्या 197 होनी चाहिए. इससे जांच प्रक्रिया धीमी होती है और लोगों की सुरक्षा खतरे में पड़ती है. पुलिस की कमी के कारण अपराधियों को पकड़ने और जनता की मदद करने में देरी होती है.
न्यायपालिका की चुनौतियां
न्यायपालिका में लंबित मामलों की संख्या 20% बढ़कर 5 करोड़ से ज्यादा हो गई है. हाई कोर्ट में 33% और जिला अदालतों में 21% पद खाली हैं. प्रत्येक जज को औसतन 2,200 मामले देखने पड़ते हैं, जिससे इंसाफ की गति धीमी हो जाती है. कोर्ट हॉल की कमी भी एक बड़ी समस्या है. केस निपटान दर 94% है, लेकिन यह अभी भी पर्याप्त नहीं है. इससे लोगों का न्याय व्यवस्था पर भरोसा कम हो रहा है.
जेलों की बदहाल स्थिति
देश की जेलों में भीड़भाड़ एक बड़ी समस्या है. कुछ जेलें अपनी क्षमता से 400% ज्यादा कैदियों को रख रही हैं. 76% कैदी ऐसे हैं, जिनका मुकदमा अभी चल रहा है और उनकी सजा तय नहीं हुई है. हर चार में से एक कैदी को मुकदमे के लिए 1 से 3 साल तक जेल में रहना पड़ता है. जेलों में 30% पद खाली हैं. एक सुधार अधिकारी को 699 कैदियों और एक डॉक्टर को 775 कैदियों की देखभाल करनी पड़ती है. प्रति कैदी रोजाना खर्च सिर्फ 121 रुपये है, जो जेल सुधार के लिए अपर्याप्त है.
कानूनी सहायता की स्थिति
कानूनी सहायता में भी कई समस्याएं हैं. फंड का सही उपयोग नहीं हो रहा, और गाँवों में कानूनी सहायता क्लिनिक की कमी है. औसतन 163 गाँवों के लिए सिर्फ एक क्लिनिक है. देश में 41,553 वकील और 43,050 पैरा-लीगल वॉलंटियर्स कानूनी सहायता दे रहे हैं. अच्छी बात यह है कि 2019 में 12 लाख लोगों को कानूनी सहायता मिली थी, जो 2024 में बढ़कर 15.5 लाख हो गई. राष्ट्रीय टोल-फ्री हेल्पलाइन और ऑनलाइन पोर्टल ने इसमें मदद की है.
फोरेंसिक और मानवाधिकार आयोग की कमियां
रिपोर्ट में फोरेंसिक सुविधाओं की कमी को भी रेखांकित किया गया है. फोरेंसिक विभाग में फंड की कमी, पुराने उपकरण और प्रशिक्षित कर्मचारियों की भारी कमी है. इसी तरह, राज्य मानवाधिकार आयोगों में वरिष्ठ पद खाली हैं, और शिकायतों के निपटारे की व्यवस्था कमजोर है. ये कमियां जांच और मानवाधिकार संरक्षण को प्रभावित करती हैं.
सुधार की जरूरत
रिपोर्ट सरकारों, न्यायपालिका, पुलिस, जेल और कानूनी सहायता प्राधिकरणों से सुधार की मांग करती है. इसके लिए मानव संसाधन बढ़ाने, बुनियादी ढांचे को बेहतर करने और फंड का सही उपयोग करने की जरूरत है. सुधार की राह मुश्किल है, लेकिन छोटे-छोटे कदमों से बदलाव संभव है. सबसे जरूरी है कि हम समस्याओं को स्वीकार करें और उन्हें ठीक करने का संकल्प लें.